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शंकर मदारी _ Shankar Madari


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Shankar Madari" (Manoranjak Story)

Author: Vikrant Rajliwal
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                   शंकर मदारी।


               (एक लघु उपन्यास)


"ह्रदय को छूती हुई एक अत्यधिक रोमांचक कहानी।"


 कहानी।


"झिलमिलाती आंखों में है अक्स यादों के दर्द कई, हर लम्हा तड़पती है जिंदगी, देख अक्स जिंदगी का खुद जिंदगी।"


"एहसास टूट कर करते है दर्द एहसासों का बयाँ, आज भी मुस्कुरा कर मिलती है करीब सेखुद जिंदगी से जब जिंदगी।"


"वो एक आह साथ है आज भी हमारे, वो एक दर्द जो आह से है भरा।"


झिलमिल नगर अपने समय का एक भव्य नगर था। सुना है उस भव्य नगर झिलमिल में प्रत्येक व्यक्ति धनी एवं शाही सुख सुविधा से पूर्णतः सम्पन्न था। यह कहना अत्यधिक कठिन था कि भव्य झिलमिल नगर अपने राजशाही भव्यता से अधिक भव्य था या अपने मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य से! भव्य नगर के एक ओर ऊँचे ऊँचे विशालकाय मनमोहक पर्वत थे और उनसे मध्य से झिलमिला कर गिरते हुए दुग्ध रंग के विशालकाय झरने। वही दूसरी ओर हरे भरे घनघोर वन और वन से सटे नगर के धनी साहुकारों के समृद्ध बाग बगीचे। इन सब प्राकृतिक सौन्दर्य को चार चांद लगती हुई झिलमिल नगर की कल कल छल छल करते हुए, बहती हुई, मशहूर झिलमिल दरिया। जो ऊँचे पर्वतों से झिलमिला कर गिरते हुए दुग्ध रंग के झरनों के बहते जल से मिल कर बनी थी और जो हरे भरे वन के बीचों बीच से गुजरते हुए; भव्य झिलमिल नगर के धनी साहुकारों के उन समृद्ध बाग-बगीचों को सींचते हुए;भव्य नगर को छूते हुए दक्षिण दिशा में बहती थी। सम्पूर्ण झिलमिल नगर इसी झिलमिल दरिया के शीतल-मीठे जल से अपनी प्यास को तृप्त करता था। इसी कारण इस झिलमिल दरिया की महिमा अत्यधिक मूल्यवान हो जाती है।


वही भव्य झिलमिल नगर के धनी लोग सदियों से अपने अत्यधिक सौम्य स्वभाव के कारण दूर दूर के राज्यो तक एक विशिष्ट सम्मान के पात्र सिद्ध होते आए थे। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना! वह दौर था भव्य झिलमिल नगर की असीम भव्यता और शान ओ शौकत का। जिसका उस दौर में हर कोई कायल था। भव्य झिलमिल नगर का वासी होना अर्थात अपने आप मे ही यह कोई विशिष्ट उपाधि से कम ना था। इतना सब कुछ होने के बाबजूद भव्य झिलमिल नगर के निवासी अपने अत्यधिक सौम्य व्यवहार के लिए जग विख्यात थे। सुना है उस दौर में भव्य झिलमिल नगर में प्रत्येक स्थानीय निवासी किसी धना सेठ से कम ना था। दूर दूर राज्यो से कई व्यपारी-सौदागर, मजदूर और कलाकार भव्य झिलमिल नगर की भव्यता के किस्से सुनकर वहाँ अपने व्यपार और कला का प्रसार करने आते और इनाम में मुह मांगा दाम और बहुमूल्य पारितोषिक पाते।


एक ओर जहा भव्य झिलमिल नगर अपनी राज शाही भव्यता और धन संपदा के लिए जग विख्यात था; वही दूसरी ओर धन संपदा से पूर्णतः परिपूर्ण होने के बाबजूद वहाँ के प्रत्येक निवासी अत्यधिक कठोर परिश्रम करते थे। शायद इसी कारण मंदी के दौर में भी राज शाही भव्य झिलमिल नगर अपनी भव्यता में दिन दूनी रात चौगनी बढ़ोतरी प्राप्त कर सम्पूर्ण संसार को हैरान किए हुए था। अरे एक ख़ास विषय तो मैं आपको बताना ही भूल गया! जी हाँ आपने सही ही समझा वह ख़ास विषय है राज शाही भव्य झिलमिल नगर के मासूम बालक। जी हाँ बालक! बालक चाहे राज शाही भव्य झिलमिल नगर के हो या किसी दरिद्र मलिन बस्ती के; बालक तो बालक ही होते है। एक ओर कठोर परिश्रम करने वाले भव्य झिलमिल नगर के धनी निवासी तो दूसरी ओर राज शाही भव्य झिलमिल नगर के विश्व विख्यात शिक्षा गुरुकुल में उच्च कोटि की शिक्षा ग्रहण करते वहाँ के अत्यधिक सौम्य और मासूम बालक।


इसी प्रकार से नित्य प्रतिदिन की क्रिया और प्रतिक्रियाओं को दोहराते हुए, कला साहित्य से सम्बंधित दूर दराज के विद्वानों एवं कलाकरों से मनोरंजन प्राप्त कर उन्हें मुह मांगा पारितोषिक देते हुए भव्य झिलमिल नगर के राज वंशियों एवं सेठ-साहूकारों समेत वहा के निवासियों के दिन सुख शांति से गुजरते हुए व्यतीत हो रहे थे। हर कोई अपने आप मे पूर्णतः सन्तुष्ट और प्रसन दिखाई देता था। फिर एक रोज़ की बात है समय यही कोई दोपहर और सांझ के मध्य का ही रहा होगा। कि तभी सम्पूर्ण झिलमिल नगर डमरू की एक तीव्र ध्वनि से गूंज उठता है। और चारो दिशा एक स्वर गूंज उठता है कि आ गया, आ गया, देखो एक मदारी अपने दो बन्दरो के साथ आ गया। यू इस प्रकार से भव्य झिलमिल नगर में एक नए उत्साह की लहर दौड़ जाती है। क्या तो बच्चे और क्या बूढ़े और जवान! हर कोई उस मदारी के आगमन से अत्यधिक उत्साह से भर जाता है।


आज बहुत समय के उपरांत यू अचानक से भव्य झिलमिल नगर के व्यवस्त और व्यस्त जीवन शैली में एक बहुत ही रोमांचक और मनोरंजक परिवर्तन सहज ही उतपन हो गया था। उस मदारी के उन दो नटखट बन्दरो को देख कर बच्चों का तो हँस हँस कर बुरा हाल था। वही नवयुवक तो उन बन्दरो को देख कर खुद बन्दर हुए जा रहे थे। कभी तो वह उन्हें देख कर किलकारी मारते तो कभी सीटियां। जिसके प्रतिउत्तर में वह दोनों बन्दर जिनमे से एक बन्दरिया थी बहुत ही जोरदार तरीके से अपने उन बड़े बड़े दांतो को दिखाते हुए किटकिटाने लगते थे।


अभी वह मदारी नगर के मुख्य द्वार से होते हुए मुख्य बाजार से गुज़र ही रहा था कि तभी नगर के दरोगा "हकड़ सिंह" अपने बड़े से चेहरे पर स्थित अपनी उन बड़ी बड़ी नुकीली मूछों को ताव देते हुए उस अंजान मदारी को रोकते हुए एक कड़क आवाज़ से कहता है कि "ए रुको कहा जा रहे हो।?" एकदम से नगर दरोगा हकड़ सिंह के उस विशालकाय शरीर को अपने समीप देख कर और उसकी उस रोबदार आवाज़ को सुन कर वह मदारी अत्यधिक भयभीत होते हुए जहां का तहा ही रुक जाता है।


तब नगर दरोगा हकड़ सिंह पुनः उस पर अपना रोब गाड़ते हुए कि तुमने बताया नही कि कहा जा रहे हो! और नाम क्या है तुम्हारा? तब वह मदारी अत्यधिक विन्रमता के साथ कहता है कि जी साहब मेरा नाम शंकर है। "शंकर मदारी" और मै पड़ोस के राज्य खैरात गंज से यहाँ इस भव्य नगर में अपना खेल तमाशा दिखाने के वास्ते आया हु। अभी वह मदारी '"शंकर" नगर दरोगा के सवालों का जबाब दे ही रहा था कि इतने ही समय में उसके इर्द गिर्द , चारों ओर एक भीड़ सी जमा हो जाती है और उस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति यही कह रहा था कि तमाशा दिखलाओ, तमाशा दिखाओ, तमाशा दिखलाओ।


नगर निवासियों का ऐसा उत्साह देख कर नगर दरोगा हकड़ सिंह स्थिति को बेकाबू होने से पूर्व ही, एक बार पुनः बीच मे अपना दखल देते हुए उत्साही नगर निवासियों को समझाते हुए कहता है कि कृपया आप सभी समानित नगर जन शांत हो जाए। अभी तो इस मदारी का भव्य झिलमिल नगर में आगमन हुआ ही है जल्द ही राज आज्ञा पत्र प्राप्त करने के उपरांत यह अपना खेल तमाशा भी दिखायेगा। परन्तु अभी के लिए आप इसको मुसाफिरखाने की ओर प्रस्तान करने दीजिए। भव्य झिलमिल नगर के कड़क दरोगा हकड़ सिंह की बात सुनकर वह भीड़ तीतर बितर हो जाती है।


तदोपरांत नगर दरोगा हकड़ सिंह एक कड़क आवाज़ के साथ उस मदारी से रूबरू होते हुए उससे कुछ वार्तालाप करता है कि "देखो मदारी ऐसा प्रतीत होता है कि तुम पहली बार भव्य झिलमिल नगर में अपना तमाशा दिखाने के लिए आए हो।" नगर दरोगा की ऐसी रौबदार आवाज़ और गठीला शरीर देख कर वह मदारी जिसका नाम शंकर था कुछ अधिक ही भयभीत हो जाता है। तब खुद को कुछ सम्भालते हुए वह कहता है कि जी साहब, मैंने भव्य झिलमिल नगर की भव्यता और यहाँ के चकाचोंध कर देने वाले शाही बाजारों की चर्चा को बहुत बार सुना था। यहाँ के महान राजवंश के दानी व्यक्तित्व की ख्याति तो दूर दूर तक विख्यात है। इसीलिए मैं भी अपना खेल तमाशा दिखाने के लिए बहुत दूर से चल कर यहा आया हु।


तब नगर दरोगा हकड़ सिंह अपनी रोबीली मुछो पर ताव देते हुए शंकर मदारी से कहता है कि हु ठीक है परन्तु ध्यान रहे राजदरबार से आज्ञा पत्र प्राप्त करने के उपरांत ही तुम भव्य झिलमिल नगर में अपना खेल तमाशा दिखा सकते हो। उसके बिना कदापि नही। इसके प्रतिउत्तर में शंकर मदारी बहुत ही सहज भाव के साथ कहता है कि जी हजूर। जैसी आपकी आज्ञा। शंकर मदारी के द्वारा यू आदर पूर्वक हाथ जोड़ कर ऐसे सम्मानपूर्वक वचनों को सुनकर नगर दरोगा हकड़ सिंह अत्यंत ही प्रसन्न हो जाता है और उसके उस विशालकाय भद्दे चेहरे पर एक मुस्कान की लहर चमकने लगती है। तब शकर पुनः कुछ हिम्मत जुटा कर अत्यंत ही आदर के साथ उससे कहता है कि महाराज कृपया कर के अब मुसाफिरखाने का मार्ग भी बता दीजिए। लगातार कई हफ़्तों के इस थका देने वाले सफर के उपरांत अब मेरा रोम रोम सफर की थकान के दर्द से कराह रहा है। 


शंकर के इस प्रकार अत्यधिक आदरपूर्वक पूछने पर भव्य झिलमिल नगर का वह नगर दरोगा बहुत ही सहजता के साथ मुस्कुराते हुए शकर मदारी से कहता है कि देखो मदारी यहाँ से तुम सीधे हाथ को मुड़ जाना तदोउपरांत दो चौराहों से गुरते हुए तुम बाई ओर को मुड़ जाना। उसी मार्ग पर शहर की एकमात्र मदिरालय है। इतना कह कर नगर दरोगा चुप हो जाता है तब शंकर मदारी कुछ हड़बड़ाहट पूर्वक कहता है कि परन्तु महाराज मुझ को तो मुसाफिरखाने में जाना है। तब नगर दरोगा हकड़ सिंह पुनः अपनी रोबीली मुछो पर ताव देते हुए कहता है कि हा भी हा मालूम है मैंने तुम्हें मुसाफिरखाने का ही पता बताया है। तब शंकर मदारी अत्यंत ही विन्रमता पूर्वक कुछ डरते डरते कहता है कि परन्तु महाराज आप ने तो मदिरालय का मार्ग बताया है। यह सुनते ही नगर दरोगा हकड़ सिंह जोर जोर से हंसने लगता है और उसी प्रकार से हंसते हुए कहता है कि भाई उस रंगीन मदिरालय के ठीक सामने ही तुम्हारी मंजिल है यानी कि मुसाफिरखाना। इतना कह कर नगर दरोगा उसी प्रकार से जोर जोर से हंसते हुए, शंकर मदारी को वहाँ अकेला छोड़ कर, वहाँ से चला जाता है। नगर दरोगा के ऐसे व्यवहार से पहले तो शंकर मदारी कुछ हैरान होता है फिर स्वयं भी हंसने लगता है और भव्य झिलमिल नगर के रंगीन मदिरालय मेरा मतलब "मुसाफिरखाने" की ओर परस्थान कर जाता है।


वही दूसरी ओर भव्य झिलमिल नगर एक धनी किसान बिरजमोहन के घर मे उसकी एक लौटी 8 वर्षीय पुत्री फूल कुमारी भोजन हेतु बैठी ही थी कि तभी घर के द्वार पर फूल कुमारी के मित्र मंडली के मित्र एक जोरदार दस्तक लगाते हुए उसको पुकारते है कि "फूल कुमारी" अरे फूल कुमारी क्या तुम घर पर ही हो? जिसके प्रतिउत्तर में फूल कुमारी भोजन से उठ कर तुरन्त ही घर के द्वार की ओर दौड़ पड़ती है और उसकी माता विपाशा देवी उसको आवाज लगा कर रोकने का प्रयत्न करते हुए कि फूल बेटी फूल रुक जाओ। भोजन तो कर लो। यह लडक़ी भी ना; कभी किसी की कोई बात नही सुनती। उधर घर के द्वार पर फूल कुमारी के मित्र मंडली के मित्र अत्यंत ही उत्साही दिख रहे है। उनको यू इस प्रकार से उत्साह में देख कर फूल कुमारी भी कुछ उत्साहित होते हुए उनसे कहती है कि आज तो तुम सब के सब बहुत ही उत्साह में नज़र आ रहे हो। क्या कोई भूत देख लिया है तुमने। इतना कहते हुए फूल कुमारी खिलखिलाकर हंसने लगती है। तभी उसकी मित्रमण्डली में से एक मित्र बाहु प्रताप उसी प्रकार से उत्साहित होते हुए कहता है कि नही नही "फूल" भूत नही बल्कि भूत से भी बढ़कर कुछ देख लिया है आज हम सब ने। कहो तो तुमको भी दिखला दे। इतना कह कर पुनः सब मित्र एक साथ हंसने मुस्कुराने लगते है।


तब फूल कुमारी उनसे उनके इस प्रकार के उत्साहित होने का कारण पूछती है कि " अच्छा बाबा अब बता भी दो न की ऐसा तुमने क्या देख लिया है जो तुम यू इस प्रकार से हवा में उड़ रहे हो। तब फूल कुमारी की एक बेहद खास सखी प्रियलता अत्यधिक उत्साह के साथ कुछ कहते हुए कि फूल आज हमने वहाँ बड़े बाजार में एक मदारी को देखा और उसके साथ दो विशालकाय बन्दर भी थे। हम तो उन्हें देखकर बहुत ही डर गए थे। यदि तुम वहाँ होती ना तो देखती वह बन्दर आदमियों जितने बड़े दिखाई देते थे। प्रियलता के यह कहते ही सभी मित्रमण्डली उसकी सहमति में हामी भरते हुए अपना सिर हिला देते है। अपने मित्रो के मुह से यह सुनते ही फूल कुमारी भी अत्यधिक उत्साहित हो जाती है और वह उसी उत्साह के साथ कहती है कि अच्छा तो उस मदारी के बन्दर इतने विशालकाय है। चलो तो मैं भी देखती हूं कहि तुम मुझे मुर्ख तो नही बना रहे हो। तभी गटकु बहुत ही मसुमियर के साथ कुछ कहता है कि नही नही "फूल" भला हम तुमसे असत्य क्यों कहने लगे। हम सत्य कह रहे है वह बन्दर बहुत ही भयानक दिखाई देते थे। परन्तु तुम अभी उन्हें नही देख सकती हो क्यों कि उसको नगर दरोगा ने पकड़ लिया था और उसको राज शाही से आज्ञा प्राप्त करने के लिए कहा गया है उसके बाद ही वह बाजार में अपना खेल तमाशा दिखा सकता है।


अभी फूल कुमारी अपने मित्र मंडली से उस अनजाने मदारी और उसके उन भयानक विशालकाय बन्दरो के विषय मे बात कर ही रही थी कि तभी उसकी माता विपाशा देवी उनके समीप पहुच कर फूल कुमारी से कुछ कहती है कि बेटी फूल वहा भोजन की थाली ठंडी होने को है तुम अपने मित्रों के साथ फिर कभी वार्तालाप जर लेना परन्तु अभी पहले भोजन ग्रहण कर लो। भोजन से यू इस प्रकार से बीच मे नही उठते इसे अन्न देवता का अपमान समझा जाता है। तब फूल कुमारी अपने मित्रों से कल विद्यालय में सम्पूर्ण किस्सा विस्तार से बताने के लिए कहते हुए उन्हें विदा दे देती है और अपनी माता के साथ भोजन ग्रहण करने हेतु घर के भीतर प्रवेश कर कर जाती है।


उधर शंकर मदारी नगर दरोगा हकड़ सिंह के जाते ही! अपने हाथ ठेले पर अपने खेल तमाशे का समान लादे और उन पर सवार अपने उन दो हृष्ट-पुष्ट वानरों को खिंचते हुए, भव्य झिलमिल नगर के मुसाफिरखाने की ओर चल देता है। हर बढ़ते कदम से भव्य झिलमिल नगर की उस शाही भव्यता को देख कर, शंकर की आंखे चौंधिया रही थी। और वह अनुमान लगाने लगा कि यहां (भव्य झिलमिल नगर) तो भिखारी भी स्वर्ण पात्र (सोने का कटोरा) में भिक्षा लेते है। यदि मुझे राज शाही की ओर से तमाशा दिखाने की अनुमति प्राप्त हो जाती है तो मेरी चारो उंगलियां चाशनी के कढ़ाए में और सिर देशी घी से सरोबार (अच्छे से भीगा हुआ) हो जाएगा। अर्थात खेल तमाशा दिखा कर वह बहुत सा धन एकत्रित कर सकता है और ऐसा भी हो जाए तो कोई हैरत ना होगी कि कोई नगर सेठ या धनी साहूकार उसको उसके तमाशे से प्रसन्न हो कर बहुमूल्य स्वर्ण मुदिरा ही भेंट दे दे। इस प्रकार से शंकर अपने स्वप्न लोक में डुबकी लगाते हुए चले जा रहा था और इसी प्रकार से वह भव्य झिलमिल नगर की चकाचौंध कर देनी वाली शाही भव्यता को निहारते हुए; कुछ ही समय के उपरांत वह नगर के मुसाफिरखाने के ठीक सामने पहुच जाता है।


जहाँ चारो और नगर की इकलौती मदिरालय की उस मदहोश कर देने वाली रंगीन मदिरा की मदमस्त महक बिखरी हुई थी। जिसकी सुगंध से शंकर सहज ही वहाँ पहुच कर ठहर गया था और अपने स्वप्न लोक से निकल कर वह वास्तविक संसार में आ गया था। अब शंकर का ध्यान मुसाफिरखाने की और जाता है। वह एक अत्यधिक विशालकाय इमारत थी। जिसके प्रवेश द्वार पर एक ढाबे के समान ही भोजन करने हेतु एक भोजनालय भी खुला हुआ था। ढ़ाबे से आती हुई स्वादिष्ट मसालेदार भोजन की सुगंध को सूंघ कर शंकर को अत्यधिक तीव्र भूख लग आई थी। तब शंकर आसमान की ओर निहारते हुए स्वयं से ही बड़बड़ाते हुए कहता है कि वाह मेरे मालिक क्या सुयोजित व्यवस्था है। विश्राम करने हेतु विशालकाय मुसाफिरखाना! मुसाफिरखाने से सटा स्वादिष्ट मसालेदार भोजन से पूर्ण भोजनालय और भोजनालय के ठीक सामने रंगीन मदिरा का राज शाही मदिरालय। वाह मजा आ गया। अब सर्वप्रथम तो मैं इस विशालकाय मुसाफिरखाने में अपने ठहरने और विश्राम करने हेतु एक कक्ष (कमरा) भाड़े पर ले लू। तदोउपरांत इस भोजनालय के स्वदिष्ट भोजन और इस भव्य झिलमिल नगर की इस मदिरालय की मदहोश कर देने वाली रंगीन मदिरा का आनन्द लिया जाएगा।


इतना विचार करते ही शंकर अपने हाथ ठेले को मुसाफिरखाने के बाड़े में, जहाँ मुसाफिरखाने के मुसाफिरों के अश्व आदि को बांधने की व्यवस्था थी; वहाँ पर खड़ा कर के मुसाफिरखाने के भीतर प्रवेश कर जाता है। मुसाफिरखाने के भीतर का दृश्य देख कर शंकर के होश उड़ जाते है। अंदर चारो ओर दूर दराज के मुसाफ़िर अपनी अपनी रंग रँगीली वेश भूषा में चहल कदमी कर रहे थे। उन्हें देख कर सहज ही यह अनुमान होता था कि यह वाला मुसाफ़िर व्यपारी होगा और यह वाला कोई योद्धा। हा यह तो कोई रंगमंच का कलाकार ही हो सकता है और यह जो उसके बाजू से होकर अभी गुजरा है ना! यह तो अवश्य ही किसी सेठ का नोकर ही लगता है। इस प्रकार से शंकर एक दृष्टि से उन मुसाफिरखाने के मुसाफिरों की वेश भूषा और हाव भाव से उनके व्यवसाय का अनुमान लगाते हुए, मुसाफिरखाने के मुंशी कार्यालय के भीतर प्रवेश कर जाता है। जहाँ एक दुबला पतला सा व्यक्ति अपनी मोटी मोटी आंखों पर एक दुबला सा ऐनक लगाए बैठा था।


उसको देख कर ऐसा प्रतीत होता था कि अवश्य ही यह कोई कुटिल स्वभाव (अपने मे चालाक) का एक धूर्त व्यक्ति है। उसको देखते ही शंकर मदारी अपने दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करता है "नमस्कार मोहदय" शंकर की आवाज़ सुनते ही मुंशी जो अभी कुछ समय पूर्व तक मुसाफिरखाने के हिसाब किताब की जांच पड़ताल कर रहा था। अकस्मात ही चौक जाता है। परंतु यह अनुमान लगाना अत्यधिक दुर्लभ था कि वह शंकर की आवाज़ से अधिक चौक गया था या उसके कंधों पर बैठे हुए उसके उन दो वानरों को देख कर। एक क्षण रुक कर स्वयं को संभालने के उपरांत मुंशी कुछ चोकते हुए कहता है कि अरे अरे! यहा कहा घुसे जा रहे हो भाई। यह कोई खेल तमाशा दिखाने का स्थान कोणी है। चलो कठे ओर कहि जाकर अपना तमाशा दिखाओ। ये य य ये वानरों को दूर रखो मुझ से। तब शंकर अत्यधिक नर्मतापूर्वक कहता है कि महाराज मैं शंकर हु एक मदारी।


यह सुनते ही मुंशी उसको अपने उस मोटे से चश्में में से ऊपर से निचे तक घूर कर देखते हुए कहता है कि कौन शंकर भाया? मैं तो ना जानो किसी शंकर ने मदारी ने। कौन देश से आयो है तू? तब शंकर मुसाफिरखाने के मुंशी को बताता है कि महाराज मैं दूर देश खैरात गंज से आयो हु, मेरा मतलब है कि आया हु। यहाँ अपना खेल तमाशा दिखाना के लिए। यदि एक कक्ष मिल जाता तो मैं अपने सफर की थकान उतार लेता। शंकर की बात सुनकर मुंशी अपने चश्मे के पीछे से उसको देखते हुए बताता है कि देख भाया पहले तो मैं महाराज कोनी अठे को "मुंशी हु" और दूसरी बात यह है कि मैं तने तो कक्ष दे सकू हु परन्तु! शंकर कुछ परेशान होते हुए "परन्तु क्या महाराज़" मेरा मतलब मुंशी जी? मुंशी अब भी उसी प्रकार से "देख भाया मैं तने तो कक्ष दे सकू हु परन्तु तेरे ये वानर! ना भाया ना; मने दूसरे मुसाफिरों का भी ध्यान रखणो है अठे। यह सुनते ही शंकर कुछ हड़बड़ा सा जाता है फिर स्वयं को कुछ संभालते हुए लगभग रुआँसे से स्वरों से कहता है कि मुंशी जी आप तो बहुत ही दयालु है। हम जैसे मुसाफिरों के लिए तो आप ही राजा धी राज साक्षात महाराज हो। आप चाहे तो क्या नही हो सकता! कृपया कुछ दया कीजिए। भला मैं अपने इन दो मासूम वानरों को लेकर कहा जाऊंगा। दया करें महाराज।


शंकर की ऐसी दयनीय स्थिति देख कर मुंशी का ह्रदय कुछ पिघल जाता है और उसके द्वारा स्वयं को महाराज जैसे अत्यंत ही शाही और सम्मानित शब्दो के साथ सम्भोदित करने से वह अत्यधिक प्रसन्न भी हो गया था। तब वह शंकर से कहता है कि तुम यहाँ तो कोणी रुक सको भाया। परन्तु मने के तू कोई भला मानुष दिखे है। इसीलिए मैं तने को मुसाफिरखाने के पिछवाड़े वाले राज शाही बाग के भीतर बने एक झोपड़े में ठहरा सकू हु। हा उठे तने कोई भाड़ो भी ना लागे। अठे ते भाया मैं तने इन वानरों के साथ कोणी ठहरन दु। यह सुनते ही शंकर अत्यधिक प्रशन्न हो जाता है और अपने दोनों हाथों को जोड़ कर अत्यंत ही विन्रमता से कहता है कि आपकी जय हु महाराज। आप अत्यंत ही दयावान है। मुंशी को धन्यवाद कह कर शंकर उस कक्ष से बाहर की ओर मूड जाता है।


तभी मुसाफिरखाने का वह मुंशी उसको आवाज़ लगा कर वापस अपने समीप बुलाता है और कहता है कि देख भायो तूने पूरी बात तो सुनी ही कोनी। मैं तने उस राज शाही के शाही बाग के शाही झोपड़े में ठहरा रेहार्यो हु। कोई भाड़ो भी कोनी ले रहयो हु। ठीक से ना भायो। पर तु तो अच्छे से जाने है की आज कल के इस लोभी दौर में कुछ भी मुफ्त कोनी मिल सके है। मुंशी अब अपने छुपे हुए दांत "शंकर" को दिखाता है। तो सुन भायो मैं सीधे सीधे बोल्यो कि मैने तेरे से कोई भाड़ो कोणी चाहिए! हा परन्तु मैने रोज़ की एक बोतल मदिरा वो भी "अनारकली" चाहिए भाया। मुसाफिरखाने के मुंशी की यह बात सुनते ही शंकर तुरंत ही हामी में अपना सर हिला देता है। और मुंशी के बताए अनुसार भव्य झिलमिल नगर के उस विशालकाय मुसाफिरखाने के पिछवाड़े वाले राज शाही बाग के शाही झोपड़े की ओर मुड़ जाता है। 


कुछ ही क्षणों के उपरांत, शंकर मदारी अपने दोनों वानरों सहित मुसाफिरखाने के पिछवाड़े में स्थित, शाही बाग में एक ओर को बने एक मजबूत झोपड़े के भीतर प्रवेश करते हुए; अत्यधिक प्रसन्न दिखाई दे रहा है। ऐसा हो भी क्यों ना! वह भी तो यही चाहता था कि वह किसी ऐसे एकांत स्थान पर ठहर सकें; जहाँ उसको कोई भी अन्य व्यक्ति चाह कर भी परेशान ना कर सकें। वह स्वयं को उस भीड़ भाड़ वाले मुसाफिरखाने में सहज महसूस नही कर पा रहा था। परन्तु यहाँ तो उसको जैसे पंख ही लग गए थे। तभी शंकर उस शाही बाग में अपने झोपड़े के समीप एक विशालकाय पीपल के वृक्ष से अपने दोनों वानरों को, नही नही माफ कीजिएगा, उनमें से एक नर वानर है तो दूसरी मादा वानर। उन्हें उस विशालकाय पीपल के वृक्ष से बांध कर दो क्षण विश्राम करने हेतु झोपड़े के भीतर बिछी हुई इकलौती चारपाई पर लेट जाता है।


अभी शंकर ने झोपड़े में पड़ी हुई उस एकलौती चारपाई पर लेट कर, दिन भर की थकी हुई अपनी आंखों को मूंदा ही था कि तभी झोपड़े के द्वार पर टँगी सांकल से एक जोरदार दस्तक होती है और शंकर हड़बड़ा कर उठ बैठता है। जैसे ही उसकी दृष्टि द्वार पर पड़ती है तो वह देखता है कि मुसाफिरखाने का वह दुबला पतला मुंशी "पोपट लाल भाया" अपने चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान के साथ खड़ा हुआ है। उसको देखते ही शंकर एक झटके के साथ उस झोपड़े की चारपाई से उठ कर बैठ जाता है। और कुछ हैरान होते हुए उस मुसाफिरखाने के मुंशी से यू इस प्रकार से आने का कारण पूछता है कि "मुंशी जी आप, क्या बात है? क्या कुछ समस्या है? जिसके प्रतिउत्तर में मुसाफिरखाने का मुंशी एक नाराज़गी भरे स्वर के साथ शंकर से कहता है कि भायो तुम अठे आराम से इस शाही चारपाई पर लेट गयो है। इतना कह कर मुंशी चुप हो जाता है और शंकर को कुछ इस प्रकार से घूरता है कि मानो वह कोई अपराधी हो। मुंशी के यू इस प्रकार के अजीबो गरीब व्यवहार से शंकर कुछ भी समझ नही पाता। तब वह मुंशी से कहता है कि महाराज आप कहना क्या चाहते है! कृपया स्पष्ट रूप से कहिए। क्या मुझ से कोई अपराध हो गया है। यह सुनते ही मुंशी उससे कहता है कि "अपराध की बात करो हो भाया! अठे तो तने माहरी भावनाओं का कत्ल कर दियो है।" 


एक क्षण रुक कर मुसाफिरखाने का वह मुंशी पोपट लाल भाया उसको कुछ स्मरण करवाते हुए कहता है कि "देखो भायो मैने पहले ही कह दियो था कि हम वानरों के साथ अठे किसी मुसाफिर ने कोणी ठहरा सके है। अन्य मुसाफ़िर भय खा सके है ना भाया। जान को घणो खतरों भी हो सके है ना भायो"। मुसाफिरखाने के उस धूर्त मुंशी के ऐसे वचन सुन कर शंकर कुछ घबरा सा जाता है फिर कुछ हौसला बटोरते हुए कहता है कि परन्तु महाराज मैं तो आपकी आज्ञा से ही यहाँ बाग में ठहरा हु और आपने ही तो! अभी शंकर कुछ कह ही रहा था कि तभी मुंशी झुंझलाते हुए उसको बीच मे ही टोक देता है कि देख्यो भाया मैं तने बोल्यो की मैं कोई महाराज कोणी, मैं अठे को मुंशी पोपट लाल हु। मुंशी को अकारण ही इस प्रकार से रुष्ट होते देख शंकर नर्मतापूर्वक कहता है कि मालूम है मुझे, परन्तु मेरे लिए तो आप ही महाराज हो। शंकर मदारी के मुहँ से अपने लिए अत्यंत ही समांजनक शब्दों को सुन कर मुसाफिरखाने के मुंशी पोपट लाल भाया का क्रोध एकदम से काफूर हो जाता है और वह कुछ मुस्कुराते हुए शंकर से कहता है कि देख भाया यो राज़ शाही बाग है अठे रुकने के कुछ नियम कुछ कायदे होवे है।


शंकर अब भी अत्यधिक विनर्मतापूर्वक कहता है कि परन्तु महाराज मेरा मतलब मुंशी जी मैंने तो किसी भी नियम का उलंघन नही किया है। यह सुनते ही मुंशी पोपट लाल भाया कुछ भड़क जाता है और शंकर से कहता है कि थारी सब बात ठीक से भाया पर मेरी बोतल (मदिरा की बोतल) कठे है! तने म्हारी बोतल की कोई परवाह कोनी है। मुसाफिरखाने के मुंशी के मुहँ से यह सुनते ही शंकर कुछ सहज होते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़ कर कहता है कि महाराज अभी तो मैंने सफर की थकान भी नही उतारी! बस एक क्षण को अपनी इस अकड़ी हुई कमर को सीधा ही किया था कि आप आ गए। तभी मुंशी पुनः कुछ क्रोधित होते हुए "तू कहना के चाहवे है भाया" कि मैं अठे कोणी आ सकू। मुंशी को पुनः क्रोधित होते हुए देख कर शंकर कुछ घबरा जाता है और उसी प्रकार से अपने हाथों को जोड़ कर अत्यंत ही विनर्मतापूर्वक कहता है कि नही नही महाराज, मैं तो यह कह रहा हु की आपने क्यों तकलीफ उठाई जबकि मैं स्वयं ही मदिरा की बोतल को लेकर आपके समुख उपस्थित होने ही वालयो था मेरा मतलब आपके समुख आने वाला था। मुंशी "ठीक से ठीक से भाया" मैने तो पहले वही मालूम था कि तू भूल्यो कोणी। मैं उठे ही बैठ्यो हु। शंकर से मदिरा का अस्वाशन प्राप्त कर मुंशी वहा से पुनः मुसाफिरखाने की ओर चला जाता है। 


मुसाफिरखाने के मुंशी के मुहँ से मदिरा की बात सुनकर शंकर के शरीर मे भी सैकड़ो मदिरा पिआसु कीड़े बुलबुलाने लगते है। तब वह एक क्षण भी गवाए बिना समीप के घड़े से एक हंडिया जल ग्रहण कर के शाही बाग के उस झोपड़े से बाहर निकल जाता है। परन्तु मदिरालय की ओर जाने से पूर्व, वह अपने उन दोनों वानरों से कुछ वर्तालाप करते हुए कि 'क्यों बहुत मज़ा आ रहा है ना! यहाँ तो तुम्हारी मौज हो गई "भैरो"और "बिजली" तू तो बहुत ही प्रसन्न दिख रही है। "भैरो"और बिजली उसके वानरों का नाम था। भैरो नर वानर का नाम और बिजली मादा वानर का नाम था। शंकर अभी अपने वानरों के साथ हँस बोल कर उन्हें कुछ सामान्य महसूस करवा ही रहा था कि तभी उसको मुसाफिरखाने के मुंशी पोपट लाल भाया की बात स्मरण (याद) हो जाती है कि "भायो मेरी बोतल।" यह बात ध्यान में आते ही शंकर मुसाफिरखाने के बाहरी द्वार की ओर मुड़ जाता है। जहाँ हर ओर मदहोश कर देने वाली भव्य झिलमिल नगर की रंगीन मदिरा की वह मादक महक बिखरी हुई थी।


अब तो शंकर कुछ बेकाबू सा होते हुए मुसाफिरखाने के ठीक सामने वाले भव्य झिलमिल नगर के एकलौते मदिरालय के भीतर प्रवेश कर जाता है। मदिरालय के भीतर प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि में एक अजीब सा नशा दिखने लगता है। वहाँ हर ओर उसको रंगीन मदिरा का पान करते हए मदिरा प्रेमी ही दिखाई दे रहे थे। इससे पहले की वह कुछ समझ पाता कि तभी मदिरालय का एक कर्मचारी उससे कुछ कहते हुए कि "साहब"। यह सुनते ही शंकर को कुछ चेतना आती है और वह उस मदिरालय के कर्मचारी से कहता है कि हा, एक बोतल संतरा और एक अंगूर वाली "अनारकली" दे दो। हा ध्यान रहे मैं कोई अनजान नही हु! रोज़ का ठेला है मेरा। मुझे एकदम तेज़ और असली मदिरा ही देना। मदिरालय का कर्मचारी "साहब यहाँ सिर्फ तेज़ और असली ही मिलती है। क्या आप मुसाफ़िर हो?" शंकर कुछ हड़बड़ाते हुए नही नही मैं यहाँ आता जाता रहता हूं। मुसाफिरखाने का मुंशी मेरा जानकर है। मुझे धोखा देने का प्रयास मत करना। शीघ्रता से संतरे और अंगूर की "अनारकली" एकदम तेज़ वाली मदिरा दे दो। मदिरालय का कर्मचारी कुछ सहज भाव से जी, जी साहब अभी लीजिए। एकदम ताज़ा और तेज़ है। शंकर मदिरालय से मदिरा की दो बोतल मदिरा ले कर मदिरालय से बाहर निकल जाता है। 


उधर मुसाफिरखाने के भीतर मुंशी पोपट लाल भाया स्वयं से कुछ बड़बड़ाते हुए कि वो कठे अटक गयो। अभी तक आयो कोणी। माहरी बोतल वाली बात वो "मदारी" भूल तो कोणी गयो भाया। अभी मुंशी इन सभी प्रश्नों के हल खोजने में चिंतामग्न था कि तभी मुंशी के कक्ष के द्वार पर एक जोरदार दस्तक होती है। जिसको सुनकर मुंशी कुछ हड़बड़ाहट के साथ होश में आते हुए की कौन है? कौन है भाया? तभी दूसरी ओर से एक आवाज़ आती है कि जी मैं हु शंकर मदारी। शंकर की आवाज़ को सुनकर मुंशी अत्यधिक प्रसन्न होते हुए, उसको कक्ष के भीतर बुला कर कहता है कि भाया अभी तक कठे अटक गयो था। म्हारी मदिरा की बोतल कठे है! लायो है के कोणी लायो? मुंशी की ऐसी उतेजना देखकर, शंकर कुछ उतेजित स्वर के साथ "हा हा मुंशी जी लायो हु! मेरा मतलब है कि लाया हूं। यह देखे रंगीन मदिरा की बोतल। शंकर अपने मदारी वाले थैले में से मदिरा की बोतल निकाल कर मुंशी को दिखाते हुए। तदोउपरांत मुंशी और मदारी शंकर वही मुसाफिरखाने के उस बड़े से बरामदे में एक विशालकाय वृक्ष के नीचे बैठ कर भव्य झिलमिल नगर की उस मदहोश कर देने वाली रंगीन मदिरा का पान करते हुए, मदिरा के नशे में मदमस्त हो जाते है। लगभग एक बोतल मदिरा का पान करने के उपरांत मुंशी और शंकर मदारी के सर पर अब मदिरा का सरूर हावी हो जाता है।


तब मुंशी मदिरा के सरूर में शंकर से कुछ कहते हुए कि दे देख भ भा भायो! आदमी तो तू मने को भला दिखे है। पर ध्यान रहे भाया मैं भी कोई बेकार को आदमी कोणी। समझ रहे हो है ना। शंकर भी मदिरा के सरूर में हामी भरते हुए कहता है कि हे हा मालूम है मुंशी। तू बहुत ही अय्याश आदमी है। शंकर के मुह से यह सुनते ही मुंशी उसको टोकते हुए कहता है कि क्या बोल्यो तू मने? मुंशी का तेज स्वर सुनकर शंकर अपना सुर कुछ हल्का कर देता है कि कुछ नही महाराज। आप तो महान आदमी है। तभी तो मुझे राज शाही बाग में ठहरने दिया है अपने।


तब मुशी मदिरा के सरूर में पुनः कुछ कहते हुए कि देख भायो, वैसे में कुछ कोणी कहु। परन्तु जिस भी दिन मने मदिरा की बोतल कोणी मिले तो समझ जाइयो कि वही दिन तेरो अठे आखरी दिन हो जावेगों। इस प्रकार से शंकर मदारी को मुसाफिरखाने के बाग में अपने दोनों वानरों के साथ ठहरने का एक ठिकाना यानी कि स्थान प्राप्त हो जाता है और इस के बदले में मुसाफिरखाने के मुंशी पोपट लाल भाया को प्रतिदिन मदिरा की एक बोतल। तदोउपरांत मुंशी के साथ मदिरा की एक बोतल से अधिक मदिरा का पान करने के उपरांत शंकर मुसाफिरखाने के बाहरी द्वार पर बने भोजनालय से स्वादिष्ट भोजन खरीद कर अपने दोनों बन्दरो के साथ उस स्वादिष्ट भोजन का लुफ्त उठा कर अपने झोपड़े में आ कर चरपाई पर लेट जाता है। आज भव्य झिलमिल नगर में शंकर का प्रथम दिन बहुत ही अच्छे से व्यतीत हो जाता है।


अगली प्रातः जैसे ही उसकी आंख खुलती है तो उसकी सांसे उसके हलक में अटक जाती है। अभी प्रातः कालीन सूर्य ठीक से उदय भी नही हुआ था और शंकर अब भी रात की मदिरा पान के सरूर में अपनी चरपाई पर पड़ा हुआ था कि तभी उसके कानों में कोई तीव्र स्वर गूंज उठता है कि भाया उठो भाया। शंकर आहिस्ता आहिस्ता से अपनी आंखों को खोलने का प्रयत्न करता है। जैसे ही वह रात्रि मदिरा पान की खुमारी में अपनी अर्धखुली आँखों को खोल कर देख सकने में समर्थ हो पाता है तो वह देखता है कि मुसाफिरखाने का मुंशी पोपट लाल भाया उसको जोरदार झटके से हिलाते हुए निंद्रा से उठाने का प्रयत्न कर रहा था। यू इस प्रकार से प्रातः मुंशी को अपने इतने समुख पाकर शंकर एक झटके के साथ उठ कर बैठ जाता है और मुंशी से यू इस प्रकार से प्रातः उसको परेशान करने का कारण पूछता है।तब मुंशी पोपट लाल भाया उसको बताता है कि भायो राज शाही दरबार को एक दरबान आयो है। तने अभी उसके साथ जानो है। मुंशी के मुह से यह बात जानकर शंकर पहले तो कुछ हैरान होता है फिर भय से कांपते हुए मुंशी से कहता है कि क्यों आया है मुंशी जी, राज शाही दरबार से दरबान? मैं नही जाऊंगा! कह दो उससे। तब मुंशी पोपट लाल भायो उसको समझाता है कि देख भाया तेने अठे अपनो खेल तमाशो दिखानो से के कोणी दिखानो! मुंशी के द्वारा इस प्रकार के सँवाद को सुन कर, शंकर कुछ हैरान-परेशान सा हो जाता है और मुंशी से उसके यू इस प्रकार के सँवाद का कारण पूछता है। तब मुंशी उसको बताता है कि अपना खेल तमाशा दिखाने के लिए राज शाही को आज्ञा पत्र आवश्यक होवे है। समझो कि कोणी समझो। मुंशी से समस्त हाल जानकर शंकर मदारी अपने उन दोनों वानरों के साथ राज शाही दरबान के पीछे पीछे राज शाही दरबार की ओर चल देता है।


 कुछ ही क्षणों के उपरांत, वह राज शाही दरबान, शंकर मदारी को भव्य झिलमिल नगर के कला एवं साहित्य विभाग के मंत्री भानु प्रताप के सहायक खोटक लाल के समुख उपस्थित कर देता है। खोटक लाल ठिगने कद काठी के बाबजूद दिखने में अत्यंत ही क्रूर प्रवर्ति का दिखाई देता था। शंकर को देखते ही वह उस पर कुछ क्रोधिक होते हुए कहता है कि क्या तुम ही वो परदेशी मदारी हु जो परदेश से हमारे इस भव्य झिलमिल नगर में अपना खेल तमाशा दिखाने के लिए आए हो? खोटल लाल का क्रोध से भरा ऐसा कड़क स्वर सुन कर, शंकर के होश उड़ जाते है और वह कुछ कुछ भयभीत भी हो जाता है। किसी प्रकार से स्वयं के भय पर काबू पाते हुए शंकर अपने दोनों हाथों को जोड़कर खोटक लाल से कहता है कि "जी महाराज।" भय के मारे उसके मुह से सिर्फ इतना ही निकल सका।


शंकर को यू इस प्रकार से भयभीत होते देख खोटकलाल की हँसी छूट जाती है और वह अत्यंत ही हँसमुख अंदाज़ में हँसते हुए शंकर से कहता है कि तुम घबरा क्यों रहे हो भाई? मैं कोई जल्लाद नही हु। इतना कहते हुए वह अपनी बगल से खेल-तमाशा दिखाने की अनुमति का राज शाही आज्ञा पत्र निकालते हुए! शंकर से 3 हलफ जो कि उस समय की अत्यधिक प्रचलित मुद्रा होती थी उसको राज शाही ख़ज़ाने में जमा करवाने के लिए कहता है। शंकर तुरन्त ही 3 हलफ राज़ शाही ख़ज़ाने में जमा करवाने के लिए खोटल लाल को देते हुए खेल तमाशा दिखाने का वह राज़ शाही आज्ञा पत्र उसके हाथों से अपने हाथों मे थामते हुए बहुत ही सहजता के साथ वहाँ से बाहर को निकल जाता है।


 वही दूसरी ओर भव्य झिलमिल नगर के बालको की मशहूर मित्र मंडली आज विद्यालय में अत्यधिक उत्साहित दिखाई दे रही है। तभी गटकु जो कि मित्र मंडली का सबसे चंचल बालक है एकाएक मदारी आया, मदारी आया का शोर मचाते हुए दौड़ने लगता है। और वह दौड़ते दौड़ते भी लगातार यही बोलता जा रहा है कि डुक डुक डुक आयो देखो मेरा खेल तमाशा। गटकु का ऐसा उत्साह देख कर विद्यालय के अन्य बालक भी अत्यधिक उत्साहित हो जाते है। तभी फूल कुमारी जो कि मित्रमंडली की मुखिया से कम ना थी अपने सभी मित्रों को एकत्रित कर मदारी और उसके बन्दरो के विषय मे वार्तालाप प्रारम्भ कर देती है। फूल कुमारी की एक आवाज़ पर सभी मित्र एकत्रित हो उसकी बात को अत्यंत ही ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर देते है। आखिर वह अपनी मित्र मंडली की मुखिया थी। उसकी हिम्मत एवं समझदारी के कारण सभी मित्र उससे अत्यधिक प्रेम जो करते थे।


फूल कुमारी अपने सभी मित्रों जैसे कि प्रियलता, बाहु और गटकु से सांझ को मदारी के खेल वाले स्थान पर मिलने के लिए कहती है। वह उन्हें समझाते हुए कहती है कि वहाँ आते समय केले और थोड़ा अनाज अवश्य ही अपने साथ लेते आए। क्यों कि खेल देखने के साथ ही वह उन बन्दरो को केले भी खिलाएंगे और अनाज उस मदारी को दे देंगे। सभी मित्र फूल कुमारी की ऐसी समझदारी पूर्ण बात से अत्यधिक प्रभावित होते हुए अपना अपना सर हिलाते हुए अपनी सहमति दर्शा देते है। तभी गटकु जो पहले से ही अत्यधिक उत्साहित दिखाई दे रहा था अपना मुह किसी बन्दर के समान फुलाते हुए कहता है कि मैं तो उन मोटे बन्दरो को सारे के सारे केले खिला दूना। देखो देखो में भी बन्दर हु मुझे भी केले खिलाओ, खिलाओ ना। गटकु के इस प्रकार के मसखरेपन से सभी मित्र खिल खिला कर हंसते हुए लोटपोट से हो जाते है।


उधर शंकर राज शाही से आज्ञा पत्र प्राप्त कर अपने आज शाम के खेल की तैयारी में जुड़ जाता है। इसके लिए वो सबसे पहले समीप के मदिरालय से एक बोतल मदिरा ले आता है और अपने गुरु मुडक्चन्द जो उसका पिता भी था को याद करते हुए मदिरा की पूरी बोतल जमीन पर उड़ेल देता है और खाली बोतल को वही फेंक कर झोपड़े के भीतर चला जाता है। उसके वहा से जाते ही उसका नर बन्दर भैरो वह मदिरा की बोतल उठा लेता है जिसमे अब भी अंश मात्र यानी कि एक से दो घुट मदिरा शेष बची हुई थी को अपने मुंह से लगा कर खाली कर देता है। और खी खी करते हुए समीप के एक वृक्ष पर चढ़ जाता है। उसके समीप ही शंकर की मादा बन्दरिया बिजली अपने साथी नर बन्दर भैरो को शराब का घुट पीते और फिर उधम मचाते देखती रही।


उस रोज की वह शाम भी साहब अजब थी। जैसे ही शंकर मदारी भव्य झिलमिल नगर के मुख्य बाजार के एक चहल पहल वाले चौराहे पर अपनी डुगडुगी बजाना प्रारम्भ करता है तो उसके चारों और देखते ही देखते एक भीड़ एकत्रित हो जाती है। शंकर मदारी की डुगडुगी का स्वर सुन कर, नन्हे नन्हे बालक तो मदारी आया मदारी आया का तीव्र शोर मचाते हुए भव्य झिलमिल नगर के मार्ग पर दौड़ने लगे। तभी शंकर अपनी पोटली में से खेल तमाशे का समान निकाल कर अपना खेल प्रारम्भ कर देता है। शंकर के वह दोनों बन्दर एक मंझे हुए कलन्दर के समान अपने मालिक की हर अज्ञा का पालन करते हुए अपने करतब दिखाना आरम्भ कर देते है। शंकर कहता कि रस्से पर चल कर दिखाओ तो बिजली (बन्दरिया) उस पतली सी रस्सी पर ऐसे चलती मानो वह किसी बगीचे में टहल रही हु। अभी खेल प्रारम्भ ही हुआ था परन्तु भव्य झिलमिल नगर के निवासी अभी से अत्यधिक उत्साहित हुए जा रहे थे। तभी शंकर भैरो के हाथों में एक लाठी थमाते हुए कहता है कि जा भई जा, अपने ससुराल जा! देख तेरी बन्दरिया कैसे सजी धजी तेरा इंतज़ार कर रही है। पर तभी भैरो वह लाठी को एक ओर फेंक देता है।


तब शंकर उसको कहता है कि भई यह लाठी तेरी सास ने भेजी है और तू इसको फेंक रहा है। अच्छा तो यह ले यह तेरे साले ने भेजी है भैरो तब भी लाठी को एक ओर को फेंक देता है। तब शंकर कहता है कि यह तेरी पत्नी ने भेजी है अब तो थाम ले। परन्तु यह क्या! अपनी पत्नी का नाम सुनते ही भैरो उस लाठी को मदारी के ऊपर दे मरता है यह देख कर हर कोई तमाशिन तालिया बजाते हुए अपनी खुशी को दर्शाते हैं। अंत मे शंकर अपने उस हठीले बन्दर भैरो से कहता है कि भई अच्छी बात है मगर यह तो तेरी छोटी साली कटो मनोहरी ने भेजी है। यह सुनते ही भैरो लाठी को थाम कर अपने ससुराल की ओर चल देता है।


यह देख कर तो हर किसी तमाशिन के हँसते हुए पेट मे बल से पड़ जाते है। वही उन तमशीनो की भीड़ में फूल कुमारी और उसकी मित्रमण्डली भी शंकर मदारी का यह तमाशा देख कर हँसते हुए लोटपोट हुए जा रहे थे। तभी फूल कुमारी अपने फल के थैले से एक केला निकाल कर भैरो की और उछाल देती है। जिसे भैरो उछल कर हवा में ही पकड़ लेता है। भैरो के इस करतब से तो वहाँ खड़ा हर तमाशिन उसके करतब का कायल हो जाता है। फूल कुमारी की देखम देख बाहु भी एक केला भैरो की ओर उछाल ने ही वाला था कि तभी बिजली एक छलांग लगा कर बाहु के एकदम समीप पहुच जाती है और उसके हाथ से वह केला छीनते हुए बाकी के केले वही बिखेर देती है। बिजली की ऐसी हरकत से बाहु अत्यंत ही भयभीत हो जाता है और उसके मुंह से एक जोरदार चीख निकल जाती है।


तब शंकर सभी तमशीनो को यह हिदायत देता है कि बिना उसकी अनुमति के कोई भी उसके बन्दरो को कुछ भी खाने के लिए नही देगा। क्योंकि इससे उनके घायल हो जाने का खतरा भी हो सकता है। परन्तु तभी भैरो फूल कुमारी के समीप पहुच कर उसकी फ्रॉक को पकड़ लेता है और फूल उसको अपने थैले में से कुछ केले निकाल कर उसको दे देती है। जिससे प्रसन्न हो कर भैरो हवा में एक जोरदार छलांग लगा देता है। यह दृश्य देख कर सब तमाशीनो सहित बाहु का भय भी दूर हो जाता है। तभी शंकर आज के खेल तमाशे का समापन कर सभी तमशीनो से दान दक्षिणा एकत्रित करने लगता है। वह मन ही मन यह सोच कर अत्यधिक प्रसन्न हो रहा था कि आज का खेल तमाशा तो बहुत ही बढ़िया रहा। ऐसा खेल तमाशा तो उसने आज से पहले कभी भी नही दिखाया था। देखो तो आज उसको सभी तमशीनो ने दक्षिणा भी दिल खोल कर दी है।


इस प्रकार शंकर प्रतिदिन भव्य झिलमिल नगर में अपना खेल तमाशा दिखाने लगा और उसे दिन प्रतिदिन पूर्व की अपेक्षा कहि अधिक दक्षिणा और मूल्यवान वस्तुए दान स्वरूप प्राप्त होने लगी। फूल कुमारी और उसकी मित्रमण्डली प्रतिदिन ही शंकर के उन बन्दरो का खेल तमाशा देखने जाते थे और उन्हें अपने हाथों से केले और स्वादिष्ट भोजन जैसे कि ख़िर और हलवा खिलाते। अब तो शंकर के वह दोनों बन्दर भैरो और बिजली भी उन्हें जानने और पहचानने लगे थे। या यह कहना अधिक उचित होगा कि वह उनके मित्र बन गए थे। बच्चे भी उनके खेल तमाशे की बड़ाई करते ना थकते थे। अब तो शंकर और उसके वह दोनों बन्दर भैरो और बिजली भव्य झिलमिल नगर में सबके आकर्षण का केंद्र बन गए थे। शंकर की तो जैसे कोई वर्षो पुरानी मुराद पूरी हो गई थी। अब वह प्रतिदिन दिल खोल कर भव्य झिलमिल नगर की उस मदहोश कर देने वाली रंगीन मदिरा का पान करता और अपने साथियों जिनमे मुसाफिरखाने का मुंशी पोपट लाल भाया भी समिलित था उन्हें दिल खोल कर मदिरा का पान करवाता।


कई बार मुंशी पोपट लाल भाया उसको समझाते कि देख भाया यू धन की बर्बादी ठीक कोणी। आपने बाल बच्चों का भी कुछ ध्यान कर ले भाया। परन्तु यह बात सुनकर शंकर और अधिक मदिरा का पान करता और कई बार तो वह किसी विकृत मानसिकता के व्यक्ति की भांति जोर जोर से हंसते हुए रोने लगता। तब वह मदिरा के सरूर में झूमते हुए कहता कि मेरे पास बहुत से हलफ (जो उस समय की अत्यधिक प्रचलित मुद्रा थी) इकठे हो गए है। देखो ये जीवन तो जीने का नाम है मित्रो। जब तक तुम्हारा यह मित्र शंकर जीवित है ना! तुम दिल खोल कर मदिरा का पान करू और मुझे भी इस मदहोश कर देने वाली रंगीन मदिरा के सरूर में झूमने दो। फिर वह मदिरा के सरूर में एक लड़खड़ाते से स्वर में एक गाना गुनगुनाने लगता है कि जीवन मे है द दो दिन एक क क दिन पीना है और दूरसे दिन भी मुझको पीना है फिर एक जोरदार हिचकी। इसके साथ ही वह वही पर गिर कर नशे में बेसुध हो जाता है।


उधर शंकर के दोनों मासूम बन्दर भैरो और बिजली भूखे और प्यासे, भोजन ग्रहण करने के लिए उसका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। फिर लगभग अर्धरात्रि के समय शंकर को कुछ चेतना आती है और वह मदिरा के सरूर में जो अब भी उसके मस्तिक पर हावी था झुमते लड़खड़ाते हुए अपने झोपड़े की ओर चल देता है। शंकर उसी प्रकार से झूमते लड़खड़ाते हुए अपने झोपड़े के समीप पहुच जाता है। जहाँ उसके वह दोनों मासूम बन्दर उसको देखते ही भय से कंपकपाने लगते है। शंकर अपने एक हाथ मे चमड़े की एक मजबूत बेत को थामे आहिस्ता आहिस्ता उनके समीप पहुच जाता है और कुछ ही क्षणों के उपरांत उन मासूम बन्दरो के चीखने चिलाने का एक तीव्र शोर हर दिशा में गूंज उठता है। शंकर की ऐसी विकृत मनोस्थिति के कारण से ना जाने कितनी बार उन मासूम बेजुबानों को उसके अत्यचार और शोषण का शिकार होना पड़ा था और उन्हें भूखे पेट ही सो जाना पड़ता था। इस बात का अंदाज़ा भी नही लगाया जा सकता। पर ऐसा वहाँ कौन था जो उन मासूम जीवों के दर्द को समझ सके?


खैर! फिर एक दिन कुछ अजीब सा घटित हुआ! शंकर आज भी पूरे जोश और उमंग के साथ अपना खेल तमाशा दिखाने में लगा हुआ था और पूर्व के समान ही सभी तमाशिन हंसते हुए लोटपोट हुए जा रहे थे। तभी फूल अपने थैले में से कुछ केले निकाल कर भैरो की ओर बढ़ा देती है और जैसे ही भैरो उन केलो को लेने के लिए फूल कुमारी के समीप पहुचता है तो फूल कुमारी की आंखे फ़टी की फटी रह जाती है। आज भैरो की आंखे कुछ नीली पड़ी हुई थी। और उसकी कमर पर भी कुछ चोट के निशान दिखाई दे रहे थे। आज भैरो की आंखों में एक दर्द फूल कुमारी को दिखाई दे रहा था। वह भैरो को अपने हाथों से केले दे रही थी परन्तु भैरो ने आज फूल कुमारी के हाथों से केले नही लिए। इसके विपरीत वह कुछ क्षण वही उसका हाथ पकड़ कर बैठा रहा। तब शंकर भैरो की रस्सी खिंचते हुए उसको अपने समीप ले आता है और एक जलते हुए आग के गोले में से उसे कूदने के लिए उकसाते हुए निर्देश देता है। कुछ ही क्षणों के उपरांत आज का खेल तमाशा भी समाप्त हो जाता है। तब शंकर प्रतिदिन के समान ही दान में मिले बहुत से हलफ और मूल्यवान वस्तुओं को एकत्रित कर प्रसन्नता पूर्वक वहा से मुसाफिरखाने की ओर चला जाता है।


शंकर मदारी का मजमा वहाँ से हटते ही फूल कुमारी समीप के एक उद्यान में एक गम्भीर विषय पर चर्चा करने के लिए अपनी मित्र मंडली के साथ एकत्रित होती है। कुछ देर एकाग्रचित्त होने के उपरांत! वह अपने मित्रों से कहती है कि तुमने आज भैरो और बिजली (शंकर मदारी के बन्दर और बन्दरिया) को देखा? आज उन्होंने मेरे हाथों से एक भी केला नही खाया। आचानक ही फूल कुमारी के स्वरों में एक अजीब सा क्रोध और ममता के भाव एक साथ दिखाई देने लगे थे। वह आगे कहती है कि जब भैरो ने मेरा फ्रॉक पकड़ लिया था तब मैंने उसकी आँखों मे एक बेबसी को देखा था। वह अत्यधिक सूजी हुई थी। जैसे किसी ने उसको निर्दयता पूर्वक पीटा हो। फूल कुमारी की बात सुनकर सभी मित्र उन दोनों बन्दरो के लिए अत्यधिक दुखी हो जाते है जो कि अब उनके मित्र बन गए थे और जिन्हें वह अपनी ही मित्र मंडली का एक हिस्सा मानने लगे थे। तभी बाहु अत्यधिक क्रोधित स्वर के साथ कहता है कि हा हा मैंने भी उनके शरीर पर चोट के निशान देखे थे। जिसने भी उनको सताया है ना मैं उसको छोडूंगा नही।


बाहु का ऐसा रूप देख कर अन्य मित्रो का भी लहू खोलने लगता है। तभी प्रियलता कुछ कहती है कि अब हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें अपने अभिवावकों से यह सब कुछ बता देना चाहिए? प्रियलता की बात से वहाँ कुछ क्षण के लिए शांति सी छा जाती है। तब फूल कुमारी अपनी मित्रमण्डली से कहती है कि नही मित्रो हमे इस समस्या का स्वयं ही कोई हल तलाशना पड़ेगा। आखिर भैरो और बिजली हमारे मित्र है और अब वह हमारी मित्र मण्डली के ही एक सदस्य मित्र है। इसीलिए हम अभी उनके ठिकाने की ओर कूच करेंगे और इस बात का पता लगाएंगे कि उनकी ऐसी दयनीय स्थिति का कौन कसूरवार है। इतना कहते ही फूल कुमारी अपनी मित्रमण्डली के साथ मुसाफिरखाने की ओर कूच कर जाती है।


जहा शंकर आज की जमा पूँजी को वही शाही बाग में पूर्व की जमा पूंजी के साथ मिलाते हुए एक पीपल के वृक्ष के तले गाड़ कर; मदिरालय की ओर जा रहा था। आज शंकर के मुख पर अत्यधिक प्रसन्नता दिखाई दे रही थी। ऐसा हो भी क्यों ना! भव्य झिलमिल नगर में आकर तो उसकी किस्मत ही पलट गई थी। कहा दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नही होती थी। रही बात मदिरा की जिसका शंकर शुरू से ही प्यासा रहता था; कभी कभार ही उसको सूंघने को प्राप्त हो पाती थी। परन्तु अब यहाँ भव्य झिलमिल नगर में दोनों समय राज शाही पकवान के साथ भव्य झिलमिल नगर की मदहोश कर देने वाली मूल्यवान रंगीन मदिरा के झरने उसके लिए बहने लगे थे।


शंकर आज भी प्रतिदिन के समान ही दो बोतल संतरा और अंगूर की सबसे मूल्यवान मदिरा की बोतल और भोजनालय से कुछ शाही पकवान खरीद कर मुसाफिरखाने के भीतर प्रवेश कर जाता है। जहा मुंशी पोपट लाल भाया उसकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। शंकर को मूल्यवान मदिरा और स्वादिष्ट पकवानों के साथ अपनी ओर आते देख मुंशी पोपट लाल भाया उसको कहता है कि देख भायो आज महफ़िल अठे कोणी जाम सकें। मुंशी के मुह से ऐसी ह्रदय घात वाली बात सुनकर शंकर उससे कहता है कि क्या हुआ महाराज! क्या मुझ से कोई अपराध हो गया है? तब मुंशी उससे कहता है ना ना भाया! वो बात कोणी। परन्तु आजकल राज शाही घणो सख्त हो ग्यो है। इसलिए आज को जलसों हम तेरो शाही दरबार मा यानी कि शाही बाग मा तेरो ठिकानो पर महफ़िल को रंग जमावेंगे। मुंशी के इतना कहते ही शंकर शाही बाग में अपने ठहरने के स्थान की ओर मुड़ जाता है और मुंशी पोपट लाल भाया भी अपनी धोती को थामे हुए उसके पीछे पीछे चल पड़ता है।


इधर फूल कुमारी अपनी मित्र मंडली के साथ मुसाफिरखाने के द्वार तक पहुच जाती है और बिना एक क्षण भी गवाए मुसाफिरखाने के भीतर प्रवेश कर जाती है। मुसाफिरखाने के भीतर एक अलग ही संसार फूल कुमारी को देखने को प्राप्त हुआ। वहाँ अधिकतर मुसाफ़िर मदिरा के सरूर में झूम रहे थे। उनमें से कोई मुसाफ़िर गीत गुनगुना रहे थे तो कोई चौसठ के जुए पर बाजी लगा रहे थे। पहले तो फूल कुमारी को कुछ भी समझ मे नही आया। परन्तु शीघ्र ही वह निर्णय लेती है कि वह मुसाफिरखाने के प्रत्येक कक्ष की जांच कर के अवश्य ही अपने उन बेजुबान मित्रों (भैरो और बिजली शंकर मदारी के बन्दर) की सहायता करेंगी।


वही दूसरी ओर मुसाफिरखाने के पिछवाड़े शाही बाग में शंकर के झोपड़े के बाहर एक चरपाई पर शंकर और मुंशी पोपट लाल भाया भव्य झिलमिल नगर की मदहोश कर देने वाली उस मूल्यवान रंगीन मदिरा का स्वाद चखने के लिए अत्यधिक ललायित दिखाई दे रहें थे। तभी शंकर चरपाई के नीचे से एक बोतल संतरे की मादक मदिरा "रसभरी" को निकलते हुए एक ही झटके के साथ उसकी सील तोड़ देता है। यह देख कर मुंशी पोपट लाल अत्यधिक हर्षित होते हुए शंकर से कहता है कि वाह भाया वाह, घणो मज़ो आ गयो। अब जल्दी से मेरो जाम इस मादक रसभरी से भर दे। रसभरी उस मूल्यवान मदिरा की बोतल का नाम था जो उसके ऊपर राज शाही मुहर के साथ छापा जाता था। शंकर भी तुरंत ही मुंशी का जाम मादक मदिरा से ऊपर तक भर देता है और फिर अपना जाम भी वह उसी प्रकार से ऊपर तक भर देता है। फिर देखते ही देखते वह दोनों रसभरी की पूरी बोतल खाली कर देते है।


तब शंकर मदिरा के सरूर में झुमते हुए, अपनी उसी चरपाई के नीचे से अंगूर की मादक मदिरा कामकेसरी की बोतल निकालते हुए पहले की ही भांति एक झटके के साथ उसकी भी सील तोड़ देता है। मुंशी पोपट लाल भाया जो अब मदिरा के सरूर में अपने गांव मल्हार का एक गीत गन गुना रहा था जिसके बोल कुछ कुछ इस प्रकार से थे कि आज मने पिनो से भायो की आज मने कोई रोके कोणी। पी पी के मने जिनो से भायो, की आज मने कोई रोके कोणी। शंकर को यू एक झटके के साथ मादक मदिरा की बोतल की सील तोड़ते देख मुंशी अचानक से चुप हो जाता है और शंकर की तारीफ करते हुए कहता है कि वाह भाया वाह, आज तो तने कतई कमाल कर दियो है। फिर उन्होंने अंगूर की मादक मदिरा कामकेसरी के दो दो जाम और पी लिए।


अब शंकर के सर माथे पर मादक मदिरा का सरूर अत्यधिक हावी हो जाता है और वह एकाएक चरपाई से उठ कर, मदिरा के नशे में झूमते हुए, अपने हाथों में चमड़े की बेंत को थामे, एक ओर को चल पड़ता है। जहाँ उसके वह दोनों बन्दर भैरो और बिजली भूखे प्यासे उसको मदिरा पीते हुए देख रहे थे। जैसे जैसे शंकर उनके समीप पहुच रहा था वैसे वैसे वह बेजुबां कुछ घबराते हुए एक अजीब सा शोर मचाने लगे थे। शंकर को यू अचानक से अपने हाथों में चमड़े की बेंत को थामे, उठ कर जाते देख मुंशी पोपट लाल भाया मदिरा के सरूर में झुलमते हुए "कठे चाल्यो भाया।" ए काई है। किसने मारोंगो भाया। परन्तु शंकर अब भी हर बढ़ते कदम से अपने उन मासूम बन्दरो के समीप पहुचता जा रहा था। फिर अचानक से वह खुद को उन बेजुबानों के अत्यधिक समीप महसूस करता है और मादक मदिरा के सरूर में झूमते हुए, अपनी उस चमड़े की बेंत से उन बेजुबानों पर टूट पड़ता है। हर बेंत की मार से उन मासूम बन्दरो भैरो और बिजली की दर्दनाक आवाज़ दूर दूर तक हर दिशा में गूंज उठती है।


उधर दूसरी ओर मुसाफिरखाने में फूल कुमारी और उसकी मित्रमण्डली को जब भैरो और बिजली की वह दर्दनाक अबाज़ सुनाई पड़ती है तो फूल कुमारी कहती है कि यह तो भैरो और बिजली की आवाज़ है अवश्य ही कोई उन मासूमो के ऊपर अत्याचार कर रहा है। इतना कहते हुए फूल कुमारी उन मासूमों की उस दर्दनाक आवाज़ की दिशा में बेसुध होकर दौड़ने लगती है और फूल कुमारी को यू पागलों की भांति दौड़ते देख, मित्रमण्डली के अन्य मित्र भी फूल कुमारी के पीछे पीछे दौड़ने लगते है। 


वहा शाही बाग में शंकर अपनी निर्दयता की हर सिमा को लांघता ही जा रहा था। आज शंकर की उन भयंकर मोटी मोटी लाल आंखों में एक अजीब सी हैवानियत दिखाई दे रही थी और वह अत्यधिक बेरहमी से उन मासूमों को पिटता जा रहा था बस पिटता ही जा रहा था। शंकर का ऐसा बेरहम रूप देख कर, मुंशी पोपट लाल भी अपनी चारपाई पर से उठ कर मदिरा के सरूर में झुमते और लड़खड़ाते हुए शंकर और उसके उन मासूम बन्दरो के समीप पहुच जाता है। जहाँ शंकर का हाथ, जो अब भी उन बेजुबानों पर अत्यंत ही बेरहमी से चमड़े की बेंत बरसाए जा रहा था उसको पकड़ते हुए कहता है कि ए काई कर रहयो है भाया। पाछे ने हट जा। परन्तु यह क्या! शंकर रुकने की बजाए अब और अधिक बेरहमी के साथ उन मासूमों पर, अपनी उस चमड़े की बेंत से वार पर वार करने लगता है।


यहाँ तक कि जब मुंशी उसको रोकने का प्रयास करता है तो वह उस पर भी अपनी उस चमड़े की मजबूत बेंत से टूट पड़ता है। जिसके कारण मुंशी पोपट लाल भाया दर्द से कराह उठता है कि मर गयो भाया। मर गयो। बचाओ कोई म्हणे। मार दियों राम जी। मने मार दियो। तभी फूल कुमारी शाही बाग में प्रवेश करते हुए। बेरहम शंकर को मदिरा के नशे में उन मासूम बेजुबानों को अत्यधिक बेरहमी से पीटते हुए पाती है। यह दृश्य देखते ही मानो फूल कुमारी के कोमल ह्रदय पर कोई व्रज प्रहार हो जाता है। और वह लगभग चीखते हुए उनकी ओर दौड़ पड़ती है कि छोड़ दो, छोड़ दो, ईष्वर के लिए छोड़ दो इन मासूमों को; छोड़ दो। कुछ ही क्षणों के उपरांत फूल कुमारी उनके अत्यंत ही समीप पहुच जाती है और अपने उन बेजुबां मित्रो से लिपट कर फुट फुट कर रोने लगती है। फूल कुमारी की ममताभरी दुलार पा कर, वह मासुम बन्दर भैरो और बिजली भी उससे एक सच्चे मित्र की भांति लिपट जाते है।


शंकर यह देख कर एक क्षण को रुक जाता है। परन्तु शीघ्र ही उसके मस्तिक पर पुनः एक हैवानियत सी हावी होने लगती है। तब वह फूल कुमारी को अपनी उस चमड़े की बेंत से मारने के लिए जैसे ही अपना हाथ ऊपर उठाता है कि तभी भय के मारे फूल कुमारी के मुह से "बाबा"-"बाबा बचाओ"-"बचाओ बाबा" की एक जोरदार चीख निकल जाती है। जो शंकर किसी के रोके नही रुक रहा था। वह अचानक से फूल कुमारी के मुह से "बाबा" शब्द सुनते ही रुक गया था और उसका वह हवा में उठा हुआ हाथ, वही स्थिर हो कर जाम हो जाता है। मानो किसी अनजान शक्ति ने उसका वह हाथ मजबूती से पकड़ लिया हो।


 तभी शंकर को अपने कानों में कुछ आवाज़े गूंजते हुए सुनाई देने लगती है। इसी के साथ शंकर को उसकी दृष्टि के सामने उसके जीवन से जुड़े कुछ ऐसे दृश्य जिन्हें वह विस्मरण यानी कि अपने जीवन से मिटा देना चाहता था; स्पष्टा से घटते हुए दिखाई देने लगते है और वह स्वयं को लगभग 23 वर्ष पूर्व खड़ा हुआ पाता है जहाँ उसकी 12 वर्षीय मासूम बच्ची "हयात" उसको पुकार रही है कि "बाबा" देखो बाबा यह मोटा बन्दर मेरा केला खा गया है। आप इन्हें छोड़ दो बाबा। यह वृक्ष पर अधिक प्रसन्न रहते है बाबा।


तब शंकर अपनी मासूम बच्ची को समझाता है कि मेरी बच्ची यदि मैने इन्हें छोड़ दिया तो फिर मैं खेल तमाशा किस का दिखाऊंगा! क्या तू बनेंगी मेरी बन्दरिया। इतना कहते हुए शंकर जोर जोर से हंसने लगता है। कुछ क्षणों तक शंकर और उसकी मासूम बच्ची "हयात" यू ही खिलखिलाकर हंसते रहे। फिर शंकर अपने आज शाम के खेल तमाशे के लिए तैयारी करना प्रारंभ कर देता है। तभी उसको एक आवाज़ आती है कि "बाबा" देखो बाबा मैं कहा हु? अपनी मासूम बच्ची की आवाज़ को सुनकर शंकर उसको इधर उधर देखता है परन्तु वह उसको कहि भी दिखाई नही देती है। तब एक बार पुनः उसकी वह मासूम बच्ची उसको पुकारती है कि "बाबा" देखो बाबा मैं कहा हु?


इस बार शंकर की दृष्टि उस पर पड़ जाती है और वह लगभग चीखते हुए कहता है कि तुम वहा ऊपर वृक्ष पर क्या कर रही हु? देखो वही रुकना मै अभी ऊपर आ रहा हु। अचानक से अपनी मासूम बच्ची को उस ऊँचे वृक्ष के ऊपर देख कर शंकर की सांसे उखड़ कर उसके हलक में ही अटक जाती है और वह एक क्षण भी गवाए बिना वृक्ष की ओर बढ़ चलता है। तभी हयात उसको उस ऊँचे घने वृक्ष के ऊपर से ही आवाज़ लगाते हुए कहती है कि "बाबा" अब मैं भी बन्दरिया बन गई हो। अब आप उन्हें छोड़ दो, यह मेरे मित्र है। इन्हें छोड़ दो बाबा। अभी हयात कुछ कह ही रही थी कि अचानक से उसका पैर फिसल जाता है और एक जोरदार चीख "बाबा" के साथ वह उस ऊँचे से वृक्ष से नीचे शंकर के कदमों के एकदम समीप गिर कर लहूलुहान हो जाती है। उस ऊँचे वृक्ष से नीचे गिरते ही उस मासूम बच्ची के प्राण पखेरू ही उड़ जाते है।


अपनी मासूम बच्ची की ऐसी हालत देख कर शंकर की आंखे कुछ धुंधला सी जाती है और उनमें उसकी पीड़ा और प्रेम के स्वरूप उसके आँसू बहने लगते है। अभी वह कुछ समझ पाता इससे पहले ही उसके कानों में पुनः एक आवाज़ गूंज उठती है कि "बाबा" बाबा बचाओ। छोड़ दो, इन्हें छोड़ दो। इसके साथ ही शंकर पुनः वर्तमान में आते हुए स्वयं को भव्य झिलमिल नगर के उस शाही बाग में एक विकृत सी मनोस्थिति मे पाता है। जहाँ उसकी दृष्टि के सामने नन्ही फूल कुमारी उसके उन बन्दरो (भैरो और बिजली) से लिपट कर रोए जा रही थी। वह अब भी रोते और बिलखते हुए निरन्तर यही कह रही थी कि छोड़ दो इन्हें छोड़ दो। अचानक से नन्ही फूल कुमारी को देख कर जो लगभग उसकी मृत बच्ची हयात के ही हमउम्र थी; शंकर के बेरहम ह्रदय में वर्षो पुरानी सोई हुई ममता पुनः जाग जाती है और उसके हाथों से वह चमड़े का बेंत छूट कर नीचे गिर जाता है। 


फिर अचानक ही शंकर बिना एक क्षण भी गवाए उन मासूम बेजुबां बन्दरो की रस्सी खोल कर उन्हें स्वतंत्र कर देता है। ठीक उसी समय भव्य झिलमिल नगर का दरोगा "हकड़ सिंह" उन मासूम बच्चों के अभिवावकों सहित उस शाही बाग में दाखिल होता है। जहाँ शंकर को एक विकृत सी मनोस्थिति मे फुल कुमारी के समीप खड़ा देख कर; वह दौड़ कर शंकर को पकड़ लेता है। शंकर को पकड़ कर वह अपने सिपाहियों से उसको कैदखाने में डालने का आदेश दे देता है। परन्तु शंकर अब भी सिर्फ यही कह रहा था कि देखो मैंने छोड़ दिया, मैंने छोड़ दिया है उन्हें! देखो मैंने छोड़ दिया उन्हें "हयात।"


इस प्रकार से शंकर अपनी मासूम मृत बच्ची हयात को एक अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भव्य झिलमिल नगर के कैदखाने की ओर चला जाता है। वही दूसरी ओर फूल कुमारी को उसकी बहादुरी और नेकदिली के स्वरूप भव्य झिलमिल नगर के सबसे सम्माननीय समान "सवर्ण ह्रदय" से समान्नित किया जाता है और शंकर के वह दोनों बन्दर (भैरो और बिजली) भव्य झिलमिल नगर के उस कैदखाने के बाहरी बगीचे में आज भी अपने मालिक "शंकर मदारी" के प्रत्येक अत्याचार को विस्मरण कर उसकी रिहाई की प्रतीक्षा कर रहे है।


विक्रांत राजलीवाल द्वारा लिखित।


समाप्त।

विक्रांत राजलीवाल 

"Shankar Madari" (Manoranjak Story)

Author: Vikrant Rajliwal
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